वनवास का आठवाँ वर्ष था। सूर्य की किरणें वृक्षों की शिखाओं से छनकर धरती पर गिर रही थीं, मानो स्वयं प्रकृति भी शांति की साधना में लीन हो। पत्तियों की सरसराहट, दूर बहती नदी की मधुर ध्वनि, और पक्षियों का कोमल कलरव—यह सब कुछ बाहरी रूप से शांत था, किंतु अर्जुन का मन अशांत था।
अर्जुन, दिव्य धनुर्धर, वीरता और विजय का प्रतीक — आज एक पत्थर पर बैठे चिंतित थे। उनके नेत्रों में व्याकुलता थी, होंठों पर मौन लेकिन भीतर तर्कों का तूफान।
“भैया,” उन्होंने कहा, स्वर भीतर से टूटा हुआ, “मेरे गांडीव की प्रत्यंचा जंग खा रही है। यह शांत वन मुझे तपस्वी बना रहा है, जबकि मेरा मन रणभूमि की पुकार सुन रहा है। मैं योद्धा हूँ — किंतु यहाँ मेरी कला, मेरा उद्देश्य व्यर्थ हो रहा है।”
युधिष्ठिर, ज्येष्ठ पांडव, जिनकी स्थिरता हिमालय के समान थी, पास खड़े थे। उन्होंने अर्जुन की बात सुनी, मुस्कराए, और बिना कुछ कहे उसका हाथ पकड़ा।
“चलो,” उन्होंने बस इतना कहा।
दोनों भाइयों ने मिलकर एक घना रास्ता तय किया — पक्षी उड़ते, पत्तियाँ गिरतीं, सूर्य धीरे-धीरे क्षितिज की ओर झुकता गया। वे पहुंचे एक शांत अर्जुन वृक्ष के नीचे, जिसके पीछे एक पतली, पारदर्शी नदी कल-कल बहती जा रही थी।
“इस वृक्ष को देखो,” युधिष्ठिर बोले, उनका स्वर उतना ही शांत था जितना नदी का बहाव, “यह विशाल है, गहरा है, दृढ़ है… लेकिन क्या तुमने कभी इसे अपना सामर्थ्य दर्शाते देखा?”
अर्जुन ने वृक्ष को देखा — उसकी शाखाएं आकाश की ओर फैली थीं, पत्तियाँ धूप में चमक रही थीं, और उसकी छाया ठंडी थी।
“यह फल देता है, छाया देता है, फिर भी मौन खड़ा है,” युधिष्ठिर ने अर्जुन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “क्या यह निर्बल है?”
अर्जुन चुप था।
“शक्ति का मूल्य तब नहीं होता जब वह सबसे तेज़ गूंजे,” युधिष्ठिर ने आगे कहा, “बल्कि तब होता है जब वह समय आने तक संयम रखे — और जब उसकी आवश्यकता हो, तब संपूर्ण ब्रह्मांड को हिला दे।”
अर्जुन के भीतर कुछ शांत हुआ। उसका चेहरा, जो अब तक चिंता से भरा था, अब आत्मचिंतन से उज्ज्वल हो गया।
वर्षों बाद — कुरुक्षेत्र
गांडीव की प्रत्यंचा फिर तन चुकी थी। रथ के पहियों से भूमि कांप रही थी। अर्जुन के सामने अधर्म की सेना खड़ी थी — किंतु अब उसका हृदय स्थिर था।
उसने गांडीव उठाया, औरधर्म के साथ युद्ध किया — न क्रोध में, न अहंकार में, बल्कि उस मौन वृक्ष की शिक्षा के साथ जिसने उसे सिखाया कि वास्तविक वीरता वह है, जो अपनी शक्तियों को धैर्य से इस्तेमाल करे।
नीति वाक्य: “वह शक्ति नहीं, जो हर क्षण गरजती रहे — बल्कि वह, जो भीतर मौन अग्नि बनकर धैर्य से सुलगती रहे, और उचित समय पर जला दे अंधकार को। यही सच्ची विजय है।”